सोमवार, 7 दिसंबर 2009
दिल ये कहता है
भूल जाऊँ ये जहाँ, थामे तेरा हाथ चलूँ
दिल ये कहता है के हर रोज मैं मिलने आऊँ
तेरी इन झील सी आँखों में डूबती जाऊँ
दिल ये कहता है ये सर रखूँ तेरे सीनेपे
तेरी बनके मैं करूँ नाज़ मेरे जीनेपे
दिल ये कहता है तेरी धडकनों में छुप जाऊँ
तू ही देखे मुझे, ग़ैरों को ना नज़र आऊँ
दिल ये कहता है के सुनती रहूँ तेरी बातें
के तेरे साए मैं गुजरे मेरी तनहा रातें
दिल ये कहता है कि कहने को बहोत कुछ है अभी
हाँ, मगर कहते हि रहने से ना होगा कुछ भी
दिल ये कहता है बिना सोचे मैं कहता हि चला
बहके जज्बात के दरिया में मैं बहता हि चला
दिल-ए-नादाँ, छोड कहना, तू जरा चुप हो जा
उनसे मिलना है तुझे ख़्वाबों में, अब तो सो जा!
रविवार, 29 नवंबर 2009
बिछड़ेंगे सभी
दिल, जान, जिगर जिनके बसमें, अक्सर रहते जो खयालोंमें
न खुदा, न मसीहा, फ़रिश्ता नहीं, है सीदा-सादा इक इन्सां
है यकीन मगर उसके जैसा आता है हजारों सालोंमें !
न हमें है पता, न उन्हें है ख़बर, उनसे अपना रिश्ता क्या है
हम उनके तसव्वुर में खोये, वो गुम अपनेहि खयालोंमें !
वो हमारे हुए, पर मिल न सके, ता-उम्र तलाश रही उनकी
हमने जो जवाबोंमें ढूँढा, वो छुपकर बैठे सवालोंमें !
दिल तोड़ दिया है बहारों ने, फूलों ने दिए हैं ज़ख्म कई
काँटों को मला मरहम की जगह हमने पांवों के छालोंमें
न हिना की वो खुशबू हाथों में, न हया की वो लाली आँखों में,
न वो सूखे फूल किताबों में, न वो गुंचे छुपे रुमालोंमें
बीमार थे हम भी 'रूह' मगर, देखा हि नहीं चारागर ने,
रहबर ने ख़बर न ली अपनी, हम भी थे भटकनेवालोंमें
शनिवार, 14 नवंबर 2009
राहें
हाए, हमने क्या किया? आंसू चुने, आंहें चुनी
कुछ ग़लत वो फ़ैसले, कुछ कोशिशें नाकामसी,
कुछ बला की हसरतें, और कुछ ग़ज़ब चाहें चुनी
थी कहीं रंगीं बहारें और कहीं वीरानियाँ,
जिनसे कोई भी न गुजरा, हमने वो राहें चुनी
दर्द के मारे हुए, तकदीर से हारे हुए,
ज़िंदगी से बाज़ आए, मौत की बाँहें चुनी
अपनि तनहाई से डरके आ गए महफ़िल में हम,
'रूह' , अब पछता रहे हैं, क्यों ग़लत राहें चुनी?
गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009
खुली किताब

पढोगे कैसे हमसफ़र मिटी हुई कहानियाँ?
लिखा था एक एक लफ़्ज आरजू़ के रंग से,
उडाए रंग वक़्त ने, गँवा दिया हर एक निशाँ
सवाल कुछ, जवाब कुछ भटक रहे यहाँ वहाँ
सबूत मिट गए मगर वजूद खू़न में रवां!
फटी किताब तार-तार है कटी पतंग सी
जरूर कुछ तो बात है कि 'रूह' की किताब का
हर एक हर्फ़ मिटके भी हिला रहा है आसमाँ!
रविवार, 27 सितंबर 2009
चेहरा
सिमटा हुआ, सहमा हुआ, उतरा हुआ सा चेहरा
चेहरे की झुर्रियों में बसे गुजरे ज़माने थे
जो छुपे रहे हमेशा से, कुछ ऐसे फंसाने थे
पथराई सी आंखों में भी सपने बहार के थे
धुंधली सी निगाहों में वो पल इंतजार के थे
लब कहना चाहते थे कुछ, और कह न पा रहे थे,
मायूसियों के साए तो बढते ही जा रहे थे!
उसे देखके न जाने मुझे डर सा क्यों लगता था?
चेहरा वो किसी गिरते से खंडहर सा क्यों लगता था?
शीशे से मैंने पूछा, की वो मुझको क्यों दिखता था?
उस चेहरे से क्या मेरा कभी कोई भी रिश्ता था?
शीशे ने कहा, वो तो मेरे साथ ही हर पल था,
कोई और नहीं, वो तो मेरा आनेवाला कल था!
अब आनेवाला कल मेरे दिल में उतर गया है,
चेहरा मेरा फिर बीते दिनों सा निखर गया है
उससे जो मुझे रहता था, वो डर निकल गया है,
मेरे आईने से अब मेरा रिश्ता बदल गया है!
बुधवार, 15 जुलाई 2009
चला जा
जागे हुए जज्बों को सुलाता ही चला जा
मैं अपनी वफ़ाओंसे इबादत करुँ तेरी,
तू अपनी जफ़ाओंसे रुलाता ही चला जा
सजदे में सर झुकाया तो मैंने सुनी सदा,
काँटों में भी फूलों को खिलाता ही चला जा
मैं तुझको भूलने की करुँ लाख कोशिशें,
तू याद मुझे अपनी दिलाता ही चला जा
परवाना बनके दिल तेरी महफ़िल में आ गया
तू बनके शमा दिल को जलाता ही चला जा
हैं 'रूह' के सीने में अभी बाकी धड़कनें,
तू गम का जहर यूँही पिलाता ही चला जा
गुरुवार, 25 जून 2009
मिल न सकेंगे
उम्मीद के चराग कभी जल न सकेंगे
क्या जाने किस कसूर की फूलों को सजा दी?
पतझड़ तो क्या, बहार में भी खिल न सकेंगे
कैसी कसम दिलाई है अश्कों को आपने?
चाहा भी तो आंखों से कभी ढल न सकेंगे
बिन आपके फिराक की रातें न कटेंगी
बिन आपके ये हिज्र के दिन ढल न सकेंगे
इस दिल में बनाया है हमने उनका आशियाँ,
वो चाहकर भी घर कभी बदल न सकेंगे
जज़्बात के पौधों को कहीं और लगा दो,
ऐ 'रूह', गम के साए में ये पल न सकेंगे
गुरुवार, 18 जून 2009
दायरे में
घूमते तेरी गली के दायरे में
ख़ुद को पाया है खुशी के दायरे में
ढूंढते ही रह गए हम, दिल हमारा
खो गया दीवानगी के दायरे में
आसमानों की बुलंदी छू मगर तू
पैर तेरे हों जमीं के दायरे में
जी रहे थे ये मगर किसको पता था?
ज़िन्दगी है ज़िन्दगी के दायरे में
वो पराये दर्द अपनाता चला है,
हम भटकते हैं खुदी के दायरे में
दिल उलझता जा रहा है आशिकी में
जैसे शहजादा परी के दायरे में
"रूह" बस ये इल्तिजा है आसमाँ से,
मौत आए शाइरी के दायरे में
बुधवार, 17 जून 2009
सिला
यूंही चला उल्फत का सिला कुछ
दिल ही तो था वो, टूटा होगा,
हम न करेंगे तुमसे गिला कुछ
दोनों ने अपना फ़र्ज़ निभाया,
हमने वफ़ा की, तुमने जफा कुछ!
रोग ये कैसा दिलको लगा है?
काम न कर सकती है दवा कुछ
काश के होश न आए अब तो,
और बढे ये गम का नशा कुछ
नाम तेरा जो आया जुबाँ पर,
ऐसा लगा मांगी है दुआ कुछ!
"रूह" ये रिश्ता कैसे निभेगा?
वो हैं खफा कुछ, हम हैं खफा कुछ!
दूरियां
है परेशानी बला की आपकी ये दूरियां
रातभर जलती रही पर आया परवाना नहीं
हाय रे किस्मत शमा की, आपकी ये दूरियां
इम्तिहाँ है सब्र का ये और जुनूँ की इन्तहा,
हो न रुसवाई वफ़ा की, आपकी ये दूरियां
कैसे भर सकते हैं वो जो जख्म फूलोंसे मिले,
चोट जैसे हो हवा की, आपकी ये दूरियां
"रूह" डर है के क़यामत आ न जाए यक ब यक
जैसे आह्ट हो कज़ा की, आपकी ये दूरियां
रविवार, 7 जून 2009
तलाश
तपती धूप में जलती हुई ये धरती अपना सावन ढूंढे
भोर भये भी घोर अंधेरा छाया रहे मेरे ही घर में
आशा की एक नयी किरन क्यों रोज पराया आंगन ढूंढें?
फूल स्वप्न के, प्रीत का धागा, मन ही मन में माला गूंथी
बन बन माला लेकर अपना प्रीतम कोई जोगन ढूंढें
जब भी देखूं, गम को छुपाकर खुशियों का ही अक्स दिखाए,
झांक झांक हर मन में मेरी छाया ऐसा दर्पन ढूंढें
कहीं अनोखा रासरंग है, कहीं मुरली की ध्वनितरंग है,
सदियों से प्यासी मीरा हर युग में अपना मोहन ढूंढें!
परेशां
भीड़ में तो हो मगर क्यों तन्हा तन्हा लग रहे हो?
कह रहे हैं अपने घर के छत, दर-ओ-दीवार हमसे
अपने घर में होके भी तुम अपने मेहमाँ लग रहे हो
मुस्कुराहट है लबों पे, क्यों निगाहों में धुआँ सा?
जैसे सीने में छुपाये कोई तूफाँ लग रहे हो
क्या सितम ये ढा रहे हो? चाँदनी में आ रहे हो
खोलकर जुल्फों के बादल, क़ातिलाना लग रहे हो
"रूह" ये बिखरे से गेसूं, और चेहरे पे उदासी,
आजकल तुम एक धुंधला आइना सा लग रहे हो
रविवार, 31 मई 2009
रिश्ता
जीवन का रुख मोड़ दिया है
खुशियों की राहें चुन ली हैं
गम का दामन छोड़ दिया है
सूखी सी सुनसान राह को
हल्का सा एक मोड़ दिया है
बादल का चंचल, लहराता
आँचल सर पे ओढ़ दिया है
जबसे उम्मीदें जागी हैं
यास का हाथ मरोड़ दिया है
पतझड़ के साये में पली जो,
उन गलियों को छोड़ दिया है
हर सीमा को लाँघ चुके हैं
हर एक बंधन तोड़ दिया है
भूल चुके सब रिश्ते नाते,
ख़ुद से रिश्ता जोड़ दिया है
प्राणज्योत
हिन्दी भारत की शक्ति है
एक सूत्र में देश पिरोती,
यह जन-जन की अभिव्यक्ति है
हिन्दी भारत के कण-कण में,
हिन्दी भारत के जन-मन में
यह प्रयास हो हिन्दी गूंजे
अखिल विश्व के हर आँगन में
वैभवशाली भरतभूमि की
एक धरोहर है यह भाषा
इसकी गरिमा और बढाएं
हर मन में यही हो अभिलाषा
सूरदास, कबीर, तुलसी की
भक्ति में हिन्दी बहती है
विश्व में सबसे ऊंचा भारत,
भारत में हिन्दी रहती है
संस्कृति से, साहित्य, कला से
भरी हुई जो ओतप्रोत है,
गर्व है हमको इस भाषा पर,
यह भारत की प्राणज्योत है
शनिवार, 30 मई 2009
राज़
इस दिल के कोरे कागज़ पर कुछ लिखना चाहा,
लिख न सके
जो राज़ छुपा तेरी आंखों में, वो पढ़ना चाहा
पढ़ न सके
कुछ देर तुम्हारी राहों में जो बैठे रहे,
फिर चलते बने,
हमने तो मनाया लाख मगर वो बहार के मौसम
रुक न सके
गम की चिंगारी से हमने अपने दिल को
जलते देखा
आंखों में धुआं सा छाने लगा, अश्कों से शोले
बुझ न सके
ऐ 'रूह' तेरी खामोशी ने नाशाद किया,
बर्बाद किया
सब राज़ रहे दिल के दिल में, उनसे हम कुछ भी
कह न सके
तू
हर साज में तेरा नगमा है,
और नाम तेरा हर धड़कन में
हर फूल में तेरा चेहरा है,
और जिक्र तेरा हर गुलशन में
हर गीत में है आवाज तेरी
और तेरी अदाएं सावन में
ये दिन, ये रात, ये कायनात
सब खिलते हैं तेरे आँगन में
जो ख्वाब छुपा है पलकों में
जो खयाल उभरता है मन में
वो तू ही तो है, जिसका जलवा
रोशन है मेरी चितवन में
तेरा ही रूप नजर आए
जब जब मैं देखूँ दर्पण में
कुदरत ने खुशियाँ चुनचुनकर
भर दी हैं मेरे दामन में
शनिवार, 23 मई 2009
बगिया
पंखों में कुछ तीर चुभे हैं
अधरों ने गाना तो चाहा,
पर मन में ही गीत दबे हैं
खिलखिलके हंसना भी चाहा,
मुस्कानों पर लगे हैं ताले,
काँटों की राहों पर चलकर
इन पैरों में पडे हैं छाले
आशाओं के वन्दनवार से
मनका द्वार सजाना चाहा,
अपने लहू से सींच के हमने
ये गुलजार सजाना चाहा
हर आशा को चोट लगी है,
और कलियों को जख्म मिले हैं
हाल न पूछो इस बगिया का,
फूल के बदले शूल खिले हैं
चाहा कुछ था, पाया कुछ है,
किस्मत ने कुछ यूँ लूटा है,
पता नहीं कब हाथ से अपने
खुशियों का दामन छूटा है
मन
नहीं माने, उडे, छू ले नील गगन
जब गंध लुटाती कली खिले,
चले झूम झूम जैसे मस्त पवन
कभी काली घटा जब घिर आए,
मनमोर नाचे आँगन आँगन
बूंदों के संग संग थिरक उठे,
सावन तो है इसका मनभावन
ऋतू आए बसंत, पलाश खिले,
कोयल संग गाये, होके मगन
संध्या की लाली जब छाये,
मन हो उदास, जल भरे नयन
तारों से सजी जो रात आए,
जादू सा जगाये चन्द्रकिरन
सपनों की नगरी में घूमे,
लिए संग कोई प्यारी सी लगन
फिर हरसिंगार की सुबह जगे,
पुलकित हो जाए वन-उपवन
फिर चंचल, अचपल, नटखट मन
नहीं माने, उडे, छू ले नील गगन!
शनिवार, 2 मई 2009
पयाम
मुझको तेरा पयाम मिला है अभी अभी
किस रोशनी से जगमगा रहा है घर मेरा
उम्मीद का चराग जला है अभी अभी
खिलती हुई कली ने मुझे दी है ये ख़बर
दिलका हसीन राज खुला है अभी अभी
राहों में मेरी फूल बिछाए बहार ने
यूँ कोई मेरे साथ चला है अभी अभी
आया है चाँद आसमां से दिल में उतरके
आँखों में तेरा प्यार पला है अभी अभी
ऐ रूह, दिल बिछाके रख सनम की राह में
एक कारवां खुशी का चला है अभी अभी
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
गुजरे ज़माने
तुमसे मिलने के बहाने ढूँढते हैं
क्या पता किस मोडपर मिल जाएगा वो?
गुमशुदा दिल को दिवाने ढूँढते हें
ये तो बस दीवानगी की इंतहा है
गूंगी गलियों में तराने ढूँढते हैं
छोड़कर अपना चमन, अपनी बहारें
वो बयाबाँ में ठिकाने ढूँढते हें
शबनमी यादों से भीगी चाँदनी में
हम वो बीते दिन सुहाने ढूँढते हैं
तिनके तिनके से जहाँ छलके वफाएं
"रूह" हम वो आशियाने ढूँढते हैं
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
दुआ
हर ग़म की दवा हम बन जाएँ
जो कबूल हो हर एक हालत में,
बस ऐसी दुआ हम बन जाएँ
चाहे मन्दिर हो चाहे मस्जिद हो,
गिरजाघर हो चाहे गुरुद्वारा
जो गूंजे सबके आँगन में,
वो तेरी सदा हम बन जाएँ
हम फूल की खुशबू बन जाएँ,
और बिखर जाएँ हर गुलशन में,
हर जख्म को जो छूकर भर दे,
वो बादेसबा हम बन जाएँ
हमसे न कभी कोई गलती हो,
नफ़रत से हमेशा दूर रहें
जोडे जो दिलों को आपस में,
वो खुदा की अदा हम बन जाएँ
पत्थर न बने हम रस्ते का,
जो चोट किसी को पहुंचाए,
रिश्तों में दरारें न हो जिसमें,
उस घर का पता हम बन जाएँ
ऐ रूह, दुआ हो कबूल तेरी,
दरबार में उसकी इंशा अल्लाह
न कभी भी खता हम बन जाएँ,
न किसीकी सजा हम बन जाएँ
रविवार, 5 अप्रैल 2009
ग़ज़ल
कैसे खिलेगा फूल वो टूटा जो शाख से?
मिल जाएगा वो खाक में, आया है खाक से
रंगीन हैं फिजाएं तुम्हारे विसाल से,
ग़मगीन हैं फिजाएं खयाल-ऐ-फिराक से
मर्जी तेरी है, तू कभी आए के न आए
आवाज दी है हमने तो उठउठके खाक से
हैरत से यूँ न देख हमें गैर नजर से
महफ़िल में तेरी आए हैं हम इत्तेफाक से
नादान है ये, जान भी दे देगा इश्क में,
इस दिल को कभी यूँ न सताना मजाक से
ऐ रूह, उसकी बेरुखी ने जान से मारा,
हम तो गए थे मिलने बड़े इश्तियाक से
सांझ
नदी की चंचल धारा में खनकती बूंदों की पायल
सलोनी सांझ के मुखड़े पे दमकती सूरज की लाली
रचाकर आयी आंखों में रात का हल्का सा काजल
दुल्हन के माथे पे सोहे चाँद का मद्धम सा टीका
निखारे रूप सुहागन का सुनहरे रंगभरे बादल
अगन है मन में मीठीसी, लगन प्रीतम से मिलने की
सजीली पलकों की झालर झुकी है लज्जा से बोझल
झील के उजले दर्पन में निहारे रूप अनोखा सा,
चली धीरे धीरे गोरी, लजाये, खाए सौ सौ बल
इसी सुरमई उजाले में डूब जाए मन की नैया
इसी चम्पई अंधेरे में मेरा भी जीवन जाए ढल
जुनून
हम भटकना चाहेंगे तो राहबर करेगा क्या?
ज़िन्दगी है सांसभर, उम्रभर की मौत है,
सांसभर न जी सका, उम्रभर करेगा क्या?
जिसको ढूंढता हुआ दर-ब-दर फिरा है तू,
वो बना है अजनबी, ढूंढकर करेगा क्या?
आजतक झुका नहीं जो किसीके सामने,
सजदा तेरा ना करे, तो वो सर करेगा क्या?
बुत बना रहे कोई, और कोई रहे ख़फा़,
ये सफर का हाल है, हमसफ़र करेगा क्या?
मौत जब करीब हो, ज़िन्दगी रकीब हो,
और दवा बने जहर, तो जहर करेगा क्या?
ख़ुद खुदा से पूछ ले 'रूह' ये तेरा जुनून
उस खुदा के दिल पे भी कुछ असर करेगा क्या?
कायनात
साथ अपने जो आपके पयाम लाई है
आपकी चाह ने इस दिल में घर बनाया है
आपके ख्वाबों ने पलकों में जगह पाई है
आप आयें तो फिजाओं में तराने गूंजे
और मौसम ने कोई मीठी ग़ज़ल गाई है
आप ही आप हो ख्वाबों में और खयालों में
दिल हमारा नहीं, ये आपकी परछाई है
इस से पहले तो कभी आपसे मिले भी न थे,
फिर भी लगता है की सदियों की शनासाई है
चंद लम्हों का रहा आपका वो साथ मगर,
ज़िंदगीभर की खुशी उस से हमने पाई है
'रूह' बेचैन रही आपसे मिलने के लिए
आपसे मिलके लगा, कायनात पाई है
शिकायत
हमको बर्बाद न कर दे कहीं चाहत तेरी
हम तो बस शाम-ओ-सहर याद तुझे करते हैं
बेवफ़ा तू है, भूल जाना है आदत तेरी
ले गया छीनके तू मुझसे मेरा सब्र-ओ-करार,
फिर भी ये दिल है के करता है इबादत तेरी
तेरे बन्दे हैं, तुझे अपना खुदा मानते हैं
अपनी हर साँस को समझा है इनायत तेरी
दिल तेरा, हम भी तेरे, जान तेरी, रूह तेरी,
दिल की धड़कन है मेरे पास अमानत तेरी
मैं ही हूँ तुझमें और तू ही बसा है मुझमें,
'रूह' अब तुझसे करें कैसे शिकायत तेरी?
सावन
अब बरसेंगे, कब बरसेंगे?
प्यासे की बुझेगी प्यास मगर
प्यासे दिल फिर भी तरसेंगे
जब सघन गगन पर नाचेगी
चमचम करती चंचल चपला,
बूंदों के घुंगरू टूटेंगे,
छम छम छम मोती बिखरेंगे
कोई मयूर पसारे पंख अपने,
हो भावविभोर पुकारेगा
मन झूमेगा, तन नाचेगा
नव रंग उमंग के छलकेंगे
बरसेगी घटा, तरसेगा जिया
परदेस बसे हो सांवरिया
बिन सावन अखियाँ बरस रही,
जाने कब ये दिन बदलेंगे
तन भीगा भीगा, मन प्यासा
सूनी राह तके व्याकुल नैना
घनश्याम बिना ये श्यामल घन
क्या बरसे हैं, क्या बरसेंगे?
सरस्वती वंदना
जयतु शारदे देवी, वीणा कर में साजे
शुभ्र वसन धारिणी माँ मयूर पर बिराजे
हे दयानिधान माते, मधुर धुन सुना दे
इस धरा को पावन कर स्वर्ग तू बना दे
वीणा के हर सुर से नादब्रम्ह जागे
शुभ्र वसन धारिणी माँ मयूर पर बिराजे
सुर, आलाप, काव्य, गान, सेवा ये हमारी
तेरा तुझको अर्पण, हम तो तेरे पुजारी
तेरी ज्ञानमहिमा से भुवनत्रय गाजे
शुभ्र वसन धारिणी माँ मयूर पर बिराजे
शनिवार, 4 अप्रैल 2009
ग़ज़ल
अपने अश्कोंको वोही टूटते तारे समझे
सारे आलम में हमें चारागर कहीं न मिला,
हमने चाहा था कोई दर्द हमारे समझे
लब तो खामोश रहे, और जुबाँ भी न खुली
बात आंखों से हुई, दिल ने इशारे समझे
नाखुदा राज़ मेरे जानके अनजान बना
न है कश्ती को पता, और न किनारे समझे
मैं तो वाकिफ़ हूँ तेरे दिल की हर एक धड़कन से
काश तू भी तो कभी मेरे इशारे समझे
'रूह' वो बनके कहर टूट पड़े हैं हमपे,
जिनको हम अपनी मुसीबत के सहारे समझे
कुछ और बात थी
हमसे ही थे ज़माने, वो कुछ और बात थी
हम जब भी हवाओंसे कहते थे दिल की बातें
बन जाते थे फंसाने, वो कुछ और बात थी
हम आंह अगर भरते, पिघलता था आसमां
बरसात के बहाने, वो कुछ और बात थी
रूठे कभी जो रहते थे हम अपने आप से ,
आता खुदा मनाने, वो कुछ और बात थी
छेडा जो साज़-ऐ-दिल तो गूंजती थी वादियाँ
गाती फ़िजा तराने, वो कुछ और बात थी
जब जिक्र हमसे होता था मीना-ओ-जाम का,
झूम उठते थे मयखाने, वो कुछ और बात थी
हमसे शुरू, हमीपे ख़तम होती थी कभी
दुनिया की दास्तानें, वो कुछ और बात थी
नाज़ अपने उठाता था जहाँ, और आज हम
जीते हैं ग़म उठाने, वो कुछ और बात थी
ऐ रूह, ये ग़ज़ल तो हुई बीता हुआ कल,
कल क्या हो कौन जाने? वो कुछ और बात थी
मंगलवार, 31 मार्च 2009
बेमौत
कहीं सब राज़ ना खुल जाएँ तेरे यूँ धड़कने से
कहीं ये आग तुमको ले न डूबे ग़म के सागर में
ज़रा जज़्बात के शोलों को तुम रोको भडकने से
अभी कलतक तो उनकी याद से महरूम रहता
न जाने आज क्यों बदला है ये दिल उनके मिलने से
ज़रा बदलो तुम अपने आप को, कुछ फै़सला कर लो
हवा भी बाज़ आयी है, तुम्हारे रुख बदलने से
कई ऐसे बहाने हैं फंसा लेते हैं जो दिल को,
बडी रुसवाइयाँ होती हैं उल्फत में फिसलने से
बता ऐ मौत, तेरे पास कुछ नुस्खा-ऐ-ग़म होगा,
बचा सकती है तू ही रूह को बेमौत मरने से
सोमवार, 30 मार्च 2009
हादसा
बस जान लो के जीना नाकाम सा हुआ है
मासूम आरजूएं एक चोट से हैं घायल
फूलों का मुस्कुराना बेजान सा हुआ है
हर सिम्त मिल रहे हैं कुछ अजनबी से साये
एक खौफ़ से ये दिल कुछ बेजार सा हुआ है
जिस शौक के लिए हम मर मर के जी रहे थे,
वो शौक, वो जुनून अब इल्ज़ाम सा हुआ है
फिर से वोही बहारें शायद कभी न आयें
अब इस चमन का बचना दुश्वार सा हुआ है
ऐ रूह, जो हुआ वो मुश्किल है भूल जाना
तेरा नाम इस जहाँ में बदनाम सा हुआ है