सोमवार, 7 दिसंबर 2009

दिल ये कहता है

दिल ये कहता है बहोत दूर तेरे साथ चलूँ
भूल जाऊँ ये जहाँ, थामे तेरा हाथ चलूँ

दिल ये कहता है के हर रोज मैं मिलने आऊँ
तेरी इन झील सी आँखों में डूबती जाऊँ

दिल  ये कहता है ये सर रखूँ तेरे सीनेपे
तेरी बनके मैं करूँ नाज़ मेरे जीनेपे

दिल ये कहता है तेरी धडकनों में छुप जाऊँ
तू ही देखे मुझे, ग़ैरों को ना नज़र आऊँ

दिल ये कहता है के सुनती रहूँ तेरी बातें
के तेरे साए मैं गुजरे मेरी तनहा रातें

दिल ये कहता है कि कहने को बहोत कुछ है अभी
हाँ, मगर कहते हि रहने से ना होगा कुछ भी      

दिल ये कहता है बिना सोचे मैं कहता हि चला
बहके जज्बात के दरिया में मैं बहता हि चला

दिल-ए-नादाँ,  छोड कहना, तू जरा चुप हो जा
उनसे मिलना है तुझे ख़्वाबों में, अब तो सो जा! 


   
  
    

1 टिप्पणी:

  1. क्रान्ति,
    ही कविता तुमच्या इतर कवितांची उंची गाठत नाही. क्रान्ति/रूहची कविता ज्या अपेक्षेने वाचली जाते ती अपेक्षा पूर्ण होत नाही. असे का ह्याचा विचार करीत आहे.

    ता. क. हे युगुल-गीत आहे का? पोस्टना कविता/गज़ल/गीत इत्यादी टॅग दिल्यास वाचकांना आस्वाद घेणे सोपे जाईल असे सुचवावेसे वाटते.

    जवाब देंहटाएं