रविवार, 27 सितंबर 2009

चेहरा

कुछ दिन से आईने में दिखता था एक चेहरा
सिमटा हुआ, सहमा हुआ, उतरा हुआ सा चेहरा

चेहरे की झुर्रियों में बसे गुजरे ज़माने थे
जो छुपे रहे हमेशा से, कुछ ऐसे फंसाने थे

पथराई सी आंखों में भी सपने बहार के थे
धुंधली सी निगाहों में वो पल इंतजार के थे

लब कहना चाहते थे कुछ, और कह न पा रहे थे,
मायूसियों के साए तो बढते ही जा रहे थे!

उसे देखके न जाने मुझे डर सा क्यों लगता था?
चेहरा वो किसी गिरते से खंडहर सा क्यों लगता था?

शीशे से मैंने पूछा, की वो मुझको क्यों दिखता था?
उस चेहरे से क्या मेरा कभी कोई भी रिश्ता था?

शीशे ने कहा, वो तो मेरे साथ ही हर पल था,
कोई और नहीं, वो तो मेरा आनेवाला कल था!

अब आनेवाला कल मेरे दिल में उतर गया है,
चेहरा मेरा फिर बीते दिनों सा निखर गया है

उससे जो मुझे रहता था, वो डर निकल गया है,
मेरे आईने से अब मेरा रिश्ता बदल गया है!