गुरुवार, 10 नवंबर 2011

सौगात

मराठी के एक प्रमुख कवि श्री. ना. धों. महानोर, जो सृष्टी के बहोत करीब हैं, मिट्टी से जिनका बहोत गहरा रिश्ता है, इनकी एक मनभावन कविता का हिंदी में अनुवाद करने का यह प्रयास | साथ में मूल रचना भी दे रही हूं |



आसमां से कुछ हंसी सौगात पाये ये जमीं 
जर्रे जर्रे से उभरकर गीत गाये जिंदगी 
खैरख़्वाही है, रहे उसका युंही रहम-ओ-करम,
खेत में मेरे हरेक दाने से लिपटे चांदनी

आसमां से कुछ हंसी सौगात पाये ये जमीं 
और पलकों से मेरे उमडे मसर्रत की नदी,
भीनीसी ताजा महक मिट्टी की फैले चारसू,
पंछियों से खेलता जाऊं, मैं गाऊं गीत भी 

इस जमीं में, खेत में बसते मेरे जान-ओ-जिगर,
दिल मेरा, मेरा जहां है ये फटा छोटासा घर 
जब मसर्रत से घिरा मैं ना रहूंगा होश में,
निक्हत-ए-शेर-ओ-सुखन, तू ले मुझे आगोश में !

क्रांति 

और यह मूल रचना 

या नभाने या भुईला दान द्यावे 
आणि या मातीतुनी चैतन्य गावे 
कोणती पुण्ये अशी येती फळाला,
जोंधळ्याला चांदणे लगडून जावे 

या नभाने या भुईला दान द्यावे
आणि माझ्या पापणीला पूर यावे 
पाहता मृद्गंध कांती सांडलेली
पाखरांशी खेळ मी मांडून गावे

गुंतलेले प्राण या रानात माझे,
फाटकी ही झोपडी काळीज माझे
मी असा आनंदुनी बेहोश होता
शब्दगंधे, तू मला बाहूत घ्यावे 

ना. धों. महानोर

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

सनम


बूटेबूटेने कई बार पढा होगा सनम 
मेरा ख़त तेरे बगिचे में पडा होगा सनम 

लाख ढूंढा मैंने दिलको, है कहां तू हि बता
तूने शायद कहिं भूलेसे रखा होगा सनम 

फूल शाखों से उतर आये हैं दस्तक सुनकर 
तेरा क़ासिद लिये पैगाम खडा होगा सनम 

महकी महकी हैं फ़िजाएं, ये कहां की खुशबू ?
तेरे जूडे में नया फूल सजा होगा सनम 

इतना अपनासा वो लगता है, नहीं है फिर भी
भूलसे ग़ैर की किस्मत में गया होगा सनम 

अश्क जो तूने इन आंखोंसे उठाया था कभी,
वो नगीने सा अंगूठी में जडा होगा सनम !

ना हकीमों से बनी बात न काम आयी दुआ 
मर्ज़ ये है तो यकीनन ही दवा होगा सनम !

याद क्यों करते हैं हम उसको ख़ुदा से पहले ?
'रूह' कहती है  ख़ुदा से भी बडा होगा सनम !

बुधवार, 14 सितंबर 2011

नहीं आती

देखने से नज़र नहीं आती
उलझनें पूछकर नहीं आती

आजकल हमसे हो गई है ख़फ़ा,
चांदनी बाम पर नहीं आती

ऐसा लगता है थम गई धडकन,
याद उनकी अगर नहीं आती

बंद दरवाजोंपे देती है सदा,
क्यूं खुशी मेरे घर नहीं आती?

जबसे हम बेख़बर हुए खुदसे,
उनकी कोई ख़बर नहीं आती

दर्द आ-आके जगा जाता है,
नींद आती है पर नहीं आती

उनका आनाही "रूह" काफ़ी था,
अब क़यामत इधर नहीं आती!

शनिवार, 30 जुलाई 2011

रोना


तेरे ईश्क की आजमाइश में रोना
कभी तुझको पाने की ख़्वाहिश में रोना!

लबों पे हंसी है दिखावे की खातिर,
छुपाये निगाहों की जुंबिश में रोना 

न रोने की हमने तो खाई थी कसमें,
पडा है मुहब्बत की साजिश में रोना 

पिघल जाये बुत वो, इसी आरज़ू में 
इबादत में रोना, परस्तिश में रोना!

दिल-ए-नातवांने नज़र की ज़ुबां से
सिखाया गमों की सिफ़ारिश में रोना 

कोई देख पाया नहीं आंसुओंको,
हमें रास आया है बारिश में रोना!

तेरे आंसुओंकी क़दर फिर भी की है,
बहोत खूब है ये नुमाइश में रोना!

ये रोना तो तकदीर है "रूह" की, दोस्त
मिला है ख़ुदा से ही बख़्शिश में रोना!

शुक्रवार, 6 मई 2011

इंतहा

तुझसे वफ़ा करते रहे, खुद से जफ़ा करते रहे
ग़लती तो हमने की मगर रब से गिला करते रहे

कहने को अपनी ज़िन्दगी, अपना नहीं कुछ इख़्तियार,
हक़ है ये ग़ैरों को कि इसका फ़ैसला करते रहे

लब हैं, जो हमने सी लिए, आंसू भी कबके पी लिए
बदनाम वो ना हो, जो हमसे बन सका, करते रहे

दिन बन गई रातें, कई सुबहों की शामें हो गई
यूं मिल गई ज़ालिम नजर, हम क्या से क्या करते रहे

कश्ती पुरानी, टूटती पतवार, नादाँ नाखुदा,
आते गए तूफान और हम सामना करते रहे

मिलनी थी हम को ये सज़ा, ता-उम्र हम ज़िंदा रहें,
पहली ख़ता से कुछ न सीखें, फिर ख़ता करते रहे

जिस दास्ताँ की इब्तिदा से आजतक महरूम हैं,
ए ’रूह’ हम दीवाने उसकी इंतहा करते रहे



 

शनिवार, 26 मार्च 2011

खै़रात की सांसें


बिन तेरे जी तो रहे हैं, मगर खुशी तो नहीं
जैसे खै़रात की सांसें हों, ज़िंदगी तो नहीं

दिलने चाहा था संवारेंगे उसे ख़्वाबों से,
ज़िंदगी दूर से गुजरी, हमें मिली तो नहीं

अजनबी शहर में भूले से उसका ज़िक्र हुआ,
लोग पूछा किए, "दीवाना वो यही तो नहीं?"

एक धुंधली सी है तसवीर दिल के शीशे में,
ग़ौर से देखिये, ये चीज आपकी तो नहीं?

सुबह आती है, चली जाती है, रात आती है
दिन गुजर जाते हैं, यूं ऊम्र गुजरती तो नहीं!

क्यों है सीने में ये खामोशी? उनके कदमोंपर
कोई शय, दिल जिसे कहते हैं, वो गिरी तो नहीं?

"रूह" बेचैन है, वो मिलके क्यों नहीं मिलता?
आशिकी संगदिल सनम की दिल्लगी तो नहीं?

शनिवार, 5 फ़रवरी 2011

तेरी दास्तां


ये मेरी कहानी से मिलती हुई है

तेरी दास्तां किसकी लिखी हुई है?


ये मेरा नहीं घर, किसी ग़ैर का है,

यहां की तो हर चीज बदली हुई है!


किनारे पे शायद हुआ उसको धोखा

कि कश्ती भी तूफां से लिपटी हुई है!


नशीली निगाहों ने क्या क्या पिलाया?

नज़र आपकी आज बहकी हुई है


इसे कैसे काबू में लायेगा कोई?

कि सदियों से ये ’रूह’ भटकी हुई है!