रोज़ सोचूँ, तुमसे पूछूँ, क्यों परेशां लग रहे हो?
भीड़ में तो हो मगर क्यों तन्हा तन्हा लग रहे हो?
कह रहे हैं अपने घर के छत, दर-ओ-दीवार हमसे
अपने घर में होके भी तुम अपने मेहमाँ लग रहे हो
मुस्कुराहट है लबों पे, क्यों निगाहों में धुआँ सा?
जैसे सीने में छुपाये कोई तूफाँ लग रहे हो
क्या सितम ये ढा रहे हो? चाँदनी में आ रहे हो
खोलकर जुल्फों के बादल, क़ातिलाना लग रहे हो
"रूह" ये बिखरे से गेसूं, और चेहरे पे उदासी,
आजकल तुम एक धुंधला आइना सा लग रहे हो
आपने बहुत ही अच्छी कहन की गजल कही है
जवाब देंहटाएंएक गुजारिश है आप तीसरा शेर (क्या सितम ये ढा .......)
जो हुस्ने मतला है मतले के बाद लगा दीजिये पढने में कुछ अटपटा लग रहा है
वीनस केसरी