रविवार, 5 अप्रैल 2009

सांझ

पवन के झोकों के संग संग गगन का लहराता आँचल
नदी की चंचल धारा में खनकती बूंदों की पायल
सलोनी सांझ के मुखड़े पे दमकती सूरज की लाली
रचाकर आयी आंखों में रात का हल्का सा काजल
दुल्हन के माथे पे सोहे चाँद का मद्धम सा टीका
निखारे रूप सुहागन का सुनहरे रंगभरे बादल
अगन है मन में मीठीसी, लगन प्रीतम से मिलने की
सजीली पलकों की झालर झुकी है लज्जा से बोझल
झील के उजले दर्पन में निहारे रूप अनोखा सा,
चली धीरे धीरे गोरी, लजाये, खाए सौ सौ बल
इसी सुरमई उजाले में डूब जाए मन की नैया
इसी चम्पई अंधेरे में मेरा भी जीवन जाए ढल

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