शनिवार, 23 मई 2009

मन

यह चंचल, अचपल, नटखट मन
नहीं माने, उडे, छू ले नील गगन
जब गंध लुटाती कली खिले,
चले झूम झूम जैसे मस्त पवन
कभी काली घटा जब घिर आए,
मनमोर नाचे आँगन आँगन
बूंदों के संग संग थिरक उठे,
सावन तो है इसका मनभावन
ऋतू आए बसंत, पलाश खिले,
कोयल संग गाये, होके मगन
संध्या की लाली जब छाये,
मन हो उदास, जल भरे नयन
तारों से सजी जो रात आए,
जादू सा जगाये चन्द्रकिरन
सपनों की नगरी में घूमे,
लिए संग कोई प्यारी सी लगन
फिर हरसिंगार की सुबह जगे,
पुलकित हो जाए वन-उपवन
फिर चंचल, अचपल, नटखट मन
नहीं माने, उडे, छू ले नील गगन!

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