शनिवार, 4 अप्रैल 2009

कुछ और बात थी

कभी हम भी थे दीवाने, वो कुछ और बात थी
हमसे ही थे ज़माने, वो कुछ और बात थी
हम जब भी हवाओंसे कहते थे दिल की बातें
बन जाते थे फंसाने, वो कुछ और बात थी
हम आंह अगर भरते, पिघलता था आसमां
बरसात के बहाने, वो कुछ और बात थी
रूठे कभी जो रहते थे हम अपने आप से ,
आता खुदा मनाने, वो कुछ और बात थी
छेडा जो साज़-ऐ-दिल तो गूंजती थी वादियाँ
गाती फ़िजा तराने, वो कुछ और बात थी
जब जिक्र हमसे होता था मीना-ओ-जाम का,
झूम उठते थे मयखाने, वो कुछ और बात थी
हमसे शुरू, हमीपे ख़तम होती थी कभी
दुनिया की दास्तानें, वो कुछ और बात थी
नाज़ अपने उठाता था जहाँ, और आज हम
जीते हैं ग़म उठाने, वो कुछ और बात थी
ऐ रूह, ये ग़ज़ल तो हुई बीता हुआ कल,
कल क्या हो कौन जाने? वो कुछ और बात थी

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