शुक्रवार, 6 मई 2011

इंतहा

तुझसे वफ़ा करते रहे, खुद से जफ़ा करते रहे
ग़लती तो हमने की मगर रब से गिला करते रहे

कहने को अपनी ज़िन्दगी, अपना नहीं कुछ इख़्तियार,
हक़ है ये ग़ैरों को कि इसका फ़ैसला करते रहे

लब हैं, जो हमने सी लिए, आंसू भी कबके पी लिए
बदनाम वो ना हो, जो हमसे बन सका, करते रहे

दिन बन गई रातें, कई सुबहों की शामें हो गई
यूं मिल गई ज़ालिम नजर, हम क्या से क्या करते रहे

कश्ती पुरानी, टूटती पतवार, नादाँ नाखुदा,
आते गए तूफान और हम सामना करते रहे

मिलनी थी हम को ये सज़ा, ता-उम्र हम ज़िंदा रहें,
पहली ख़ता से कुछ न सीखें, फिर ख़ता करते रहे

जिस दास्ताँ की इब्तिदा से आजतक महरूम हैं,
ए ’रूह’ हम दीवाने उसकी इंतहा करते रहे