गुरुवार, 25 जून 2009

मिल न सकेंगे

हम यूँ बिछड़ गए हैं के फिर मिल न सकेंगे
उम्मीद के चराग कभी जल न सकेंगे

क्या जाने किस कसूर की फूलों को सजा दी?
पतझड़ तो क्या, बहार में भी खिल न सकेंगे

कैसी कसम दिलाई है अश्कों को आपने?
चाहा भी तो आंखों से कभी ढल न सकेंगे

बिन आपके फिराक की रातें न कटेंगी
बिन आपके ये हिज्र के दिन ढल न सकेंगे

इस दिल में बनाया है हमने उनका आशियाँ,
वो चाहकर भी घर कभी बदल न सकेंगे

जज़्बात के पौधों को कहीं और लगा दो,
ऐ 'रूह', गम के साए में ये पल न सकेंगे

गुरुवार, 18 जून 2009

दायरे में

घूमते तेरी गली के दायरे में

ख़ुद को पाया है खुशी के दायरे में

ढूंढते ही रह गए हम, दिल हमारा

खो गया दीवानगी के दायरे में

आसमानों की बुलंदी छू मगर तू

पैर तेरे हों जमीं के दायरे में

जी रहे थे ये मगर किसको पता था?

ज़िन्दगी है ज़िन्दगी के दायरे में

वो पराये दर्द अपनाता चला है,

हम भटकते हैं खुदी के दायरे में

दिल उलझता जा रहा है आशिकी में

जैसे शहजादा परी के दायरे में

"रूह" बस ये इल्तिजा है आसमाँ से,

मौत आए शाइरी के दायरे में

बुधवार, 17 जून 2009

सिला

तुमने कहा कुछ, हमने सुना कुछ
यूंही चला उल्फत का सिला कुछ
दिल ही तो था वो, टूटा होगा,
हम न करेंगे तुमसे गिला कुछ
दोनों ने अपना फ़र्ज़ निभाया,
हमने वफ़ा की, तुमने जफा कुछ!
रोग ये कैसा दिलको लगा है?
काम न कर सकती है दवा कुछ
काश के होश न आए अब तो,
और बढे ये गम का नशा कुछ
नाम तेरा जो आया जुबाँ पर,
ऐसा लगा मांगी है दुआ कुछ!
"रूह" ये रिश्ता कैसे निभेगा?
वो हैं खफा कुछ, हम हैं खफा कुछ!

दूरियां

ये सज़ा है किस खता की आपकी ये दूरियां?
है परेशानी बला की आपकी ये दूरियां
रातभर जलती रही पर आया परवाना नहीं
हाय रे किस्मत शमा की, आपकी ये दूरियां
इम्तिहाँ है सब्र का ये और जुनूँ की इन्तहा,
हो न रुसवाई वफ़ा की, आपकी ये दूरियां
कैसे भर सकते हैं वो जो जख्म फूलोंसे मिले,
चोट जैसे हो हवा की, आपकी ये दूरियां
"रूह" डर है के क़यामत आ न जाए यक ब यक
जैसे आह्ट हो कज़ा की, आपकी ये दूरियां

रविवार, 7 जून 2009

तलाश

इन आंखों से बहता हुआ हर कतरा तेरा दामन ढूंढे
तपती धूप में जलती हुई ये धरती अपना सावन ढूंढे

भोर भये भी घोर अंधेरा छाया रहे मेरे ही घर में
आशा की एक नयी किरन क्यों रोज पराया आंगन ढूंढें?

फूल स्वप्न के, प्रीत का धागा, मन ही मन में माला गूंथी
बन बन माला लेकर अपना प्रीतम कोई जोगन ढूंढें

जब भी देखूं, गम को छुपाकर खुशियों का ही अक्स दिखाए,
झांक झांक हर मन में मेरी छाया ऐसा दर्पन ढूंढें

कहीं अनोखा रासरंग है, कहीं मुरली की ध्वनितरंग है,
सदियों से प्यासी मीरा हर युग में अपना मोहन ढूंढें!

परेशां

रोज़ सोचूँ, तुमसे पूछूँ, क्यों परेशां लग रहे हो?
भीड़ में तो हो मगर क्यों तन्हा तन्हा लग रहे हो?

कह रहे हैं अपने घर के छत, दर-ओ-दीवार हमसे
अपने घर में होके भी तुम अपने मेहमाँ लग रहे हो

मुस्कुराहट है लबों पे, क्यों निगाहों में धुआँ सा?
जैसे सीने में छुपाये कोई तूफाँ लग रहे हो

क्या सितम ये ढा रहे हो? चाँदनी में आ रहे हो
खोलकर जुल्फों के बादल, क़ातिलाना लग रहे हो

"रूह" ये बिखरे से गेसूं, और चेहरे पे उदासी,
आजकल तुम एक धुंधला आइना सा लग रहे हो