गुरुवार, 8 अक्टूबर 2009

खुली किताब


खुली किताब ज़िन्दगी, मगर नजर धुआँ धुआँ
पढोगे कैसे हमसफ़र मिटी हुई कहानियाँ?

लिखा था एक एक लफ़्ज आरजू़ के रंग से,
उडाए रंग वक़्त ने, गँवा दिया हर एक निशाँ
जिगर के कुछ कलाम थे किताब में छुपे हुए,
सवाल कुछ, जवाब कुछ भटक रहे यहाँ वहाँ
खु़तू़त कुछ सम्हालके रखे हुए थे, जल गए
सबूत मिट गए मगर वजूद खू़न में रवां!

फटी किताब तार-तार है कटी पतंग सी
हवा उडाके ले गयी, पता नहीं गिरे कहाँ!

जरूर कुछ तो बात है कि 'रूह' की किताब का
हर एक हर्फ़ मिटके भी हिला रहा है आसमाँ!

रविवार, 27 सितंबर 2009

चेहरा

कुछ दिन से आईने में दिखता था एक चेहरा
सिमटा हुआ, सहमा हुआ, उतरा हुआ सा चेहरा

चेहरे की झुर्रियों में बसे गुजरे ज़माने थे
जो छुपे रहे हमेशा से, कुछ ऐसे फंसाने थे

पथराई सी आंखों में भी सपने बहार के थे
धुंधली सी निगाहों में वो पल इंतजार के थे

लब कहना चाहते थे कुछ, और कह न पा रहे थे,
मायूसियों के साए तो बढते ही जा रहे थे!

उसे देखके न जाने मुझे डर सा क्यों लगता था?
चेहरा वो किसी गिरते से खंडहर सा क्यों लगता था?

शीशे से मैंने पूछा, की वो मुझको क्यों दिखता था?
उस चेहरे से क्या मेरा कभी कोई भी रिश्ता था?

शीशे ने कहा, वो तो मेरे साथ ही हर पल था,
कोई और नहीं, वो तो मेरा आनेवाला कल था!

अब आनेवाला कल मेरे दिल में उतर गया है,
चेहरा मेरा फिर बीते दिनों सा निखर गया है

उससे जो मुझे रहता था, वो डर निकल गया है,
मेरे आईने से अब मेरा रिश्ता बदल गया है!

बुधवार, 15 जुलाई 2009

चला जा

बीते हुए लम्हों को भुलाता ही चला जा
जागे हुए जज्बों को सुलाता ही चला जा

मैं अपनी वफ़ाओंसे इबादत करुँ तेरी,
तू अपनी जफ़ाओंसे रुलाता ही चला जा

सजदे में सर झुकाया तो मैंने सुनी सदा,
काँटों में भी फूलों को खिलाता ही चला जा

मैं तुझको भूलने की करुँ लाख कोशिशें,
तू याद मुझे अपनी दिलाता ही चला जा

परवाना बनके दिल तेरी महफ़िल में आ गया
तू बनके शमा दिल को जलाता ही चला जा

हैं 'रूह' के सीने में अभी बाकी धड़कनें,
तू गम का जहर यूँही पिलाता ही चला जा

गुरुवार, 25 जून 2009

मिल न सकेंगे

हम यूँ बिछड़ गए हैं के फिर मिल न सकेंगे
उम्मीद के चराग कभी जल न सकेंगे

क्या जाने किस कसूर की फूलों को सजा दी?
पतझड़ तो क्या, बहार में भी खिल न सकेंगे

कैसी कसम दिलाई है अश्कों को आपने?
चाहा भी तो आंखों से कभी ढल न सकेंगे

बिन आपके फिराक की रातें न कटेंगी
बिन आपके ये हिज्र के दिन ढल न सकेंगे

इस दिल में बनाया है हमने उनका आशियाँ,
वो चाहकर भी घर कभी बदल न सकेंगे

जज़्बात के पौधों को कहीं और लगा दो,
ऐ 'रूह', गम के साए में ये पल न सकेंगे

गुरुवार, 18 जून 2009

दायरे में

घूमते तेरी गली के दायरे में

ख़ुद को पाया है खुशी के दायरे में

ढूंढते ही रह गए हम, दिल हमारा

खो गया दीवानगी के दायरे में

आसमानों की बुलंदी छू मगर तू

पैर तेरे हों जमीं के दायरे में

जी रहे थे ये मगर किसको पता था?

ज़िन्दगी है ज़िन्दगी के दायरे में

वो पराये दर्द अपनाता चला है,

हम भटकते हैं खुदी के दायरे में

दिल उलझता जा रहा है आशिकी में

जैसे शहजादा परी के दायरे में

"रूह" बस ये इल्तिजा है आसमाँ से,

मौत आए शाइरी के दायरे में

बुधवार, 17 जून 2009

सिला

तुमने कहा कुछ, हमने सुना कुछ
यूंही चला उल्फत का सिला कुछ
दिल ही तो था वो, टूटा होगा,
हम न करेंगे तुमसे गिला कुछ
दोनों ने अपना फ़र्ज़ निभाया,
हमने वफ़ा की, तुमने जफा कुछ!
रोग ये कैसा दिलको लगा है?
काम न कर सकती है दवा कुछ
काश के होश न आए अब तो,
और बढे ये गम का नशा कुछ
नाम तेरा जो आया जुबाँ पर,
ऐसा लगा मांगी है दुआ कुछ!
"रूह" ये रिश्ता कैसे निभेगा?
वो हैं खफा कुछ, हम हैं खफा कुछ!

दूरियां

ये सज़ा है किस खता की आपकी ये दूरियां?
है परेशानी बला की आपकी ये दूरियां
रातभर जलती रही पर आया परवाना नहीं
हाय रे किस्मत शमा की, आपकी ये दूरियां
इम्तिहाँ है सब्र का ये और जुनूँ की इन्तहा,
हो न रुसवाई वफ़ा की, आपकी ये दूरियां
कैसे भर सकते हैं वो जो जख्म फूलोंसे मिले,
चोट जैसे हो हवा की, आपकी ये दूरियां
"रूह" डर है के क़यामत आ न जाए यक ब यक
जैसे आह्ट हो कज़ा की, आपकी ये दूरियां

रविवार, 7 जून 2009

तलाश

इन आंखों से बहता हुआ हर कतरा तेरा दामन ढूंढे
तपती धूप में जलती हुई ये धरती अपना सावन ढूंढे

भोर भये भी घोर अंधेरा छाया रहे मेरे ही घर में
आशा की एक नयी किरन क्यों रोज पराया आंगन ढूंढें?

फूल स्वप्न के, प्रीत का धागा, मन ही मन में माला गूंथी
बन बन माला लेकर अपना प्रीतम कोई जोगन ढूंढें

जब भी देखूं, गम को छुपाकर खुशियों का ही अक्स दिखाए,
झांक झांक हर मन में मेरी छाया ऐसा दर्पन ढूंढें

कहीं अनोखा रासरंग है, कहीं मुरली की ध्वनितरंग है,
सदियों से प्यासी मीरा हर युग में अपना मोहन ढूंढें!

परेशां

रोज़ सोचूँ, तुमसे पूछूँ, क्यों परेशां लग रहे हो?
भीड़ में तो हो मगर क्यों तन्हा तन्हा लग रहे हो?

कह रहे हैं अपने घर के छत, दर-ओ-दीवार हमसे
अपने घर में होके भी तुम अपने मेहमाँ लग रहे हो

मुस्कुराहट है लबों पे, क्यों निगाहों में धुआँ सा?
जैसे सीने में छुपाये कोई तूफाँ लग रहे हो

क्या सितम ये ढा रहे हो? चाँदनी में आ रहे हो
खोलकर जुल्फों के बादल, क़ातिलाना लग रहे हो

"रूह" ये बिखरे से गेसूं, और चेहरे पे उदासी,
आजकल तुम एक धुंधला आइना सा लग रहे हो

रविवार, 31 मई 2009

रिश्ता

मन का कहना मानके हमने
जीवन का रुख मोड़ दिया है
खुशियों की राहें चुन ली हैं
गम का दामन छोड़ दिया है
सूखी सी सुनसान राह को
हल्का सा एक मोड़ दिया है
बादल का चंचल, लहराता
आँचल सर पे ओढ़ दिया है
जबसे उम्मीदें जागी हैं
यास का हाथ मरोड़ दिया है
पतझड़ के साये में पली जो,
उन गलियों को छोड़ दिया है
हर सीमा को लाँघ चुके हैं
हर एक बंधन तोड़ दिया है
भूल चुके सब रिश्ते नाते,
ख़ुद से रिश्ता जोड़ दिया है

प्राणज्योत

हिन्दी केवल नहीं है भाषा,
हिन्दी भारत की शक्ति है
एक सूत्र में देश पिरोती,
यह जन-जन की अभिव्यक्ति है

हिन्दी भारत के कण-कण में,
हिन्दी भारत के जन-मन में
यह प्रयास हो हिन्दी गूंजे
अखिल विश्व के हर आँगन में

वैभवशाली भरतभूमि की
एक धरोहर है यह भाषा
इसकी गरिमा और बढाएं
हर मन में यही हो अभिलाषा

सूरदास, कबीर, तुलसी की
भक्ति में हिन्दी बहती है
विश्व में सबसे ऊंचा भारत,
भारत में हिन्दी रहती है

संस्कृति से, साहित्य, कला से
भरी हुई जो ओतप्रोत है,
गर्व है हमको इस भाषा पर,
यह भारत की प्राणज्योत है

शनिवार, 30 मई 2009

राज़

इस दिल के कोरे कागज़ पर कुछ लिखना चाहा,

लिख न सके

जो राज़ छुपा तेरी आंखों में, वो पढ़ना चाहा

पढ़ न सके

कुछ देर तुम्हारी राहों में जो बैठे रहे,

फिर चलते बने,

हमने तो मनाया लाख मगर वो बहार के मौसम

रुक न सके

गम की चिंगारी से हमने अपने दिल को

जलते देखा

आंखों में धुआं सा छाने लगा, अश्कों से शोले

बुझ न सके

ऐ 'रूह' तेरी खामोशी ने नाशाद किया,

बर्बाद किया

सब राज़ रहे दिल के दिल में, उनसे हम कुछ भी

कह न सके

तू

हर साज में तेरा नगमा है,

और नाम तेरा हर धड़कन में

हर फूल में तेरा चेहरा है,

और जिक्र तेरा हर गुलशन में

हर गीत में है आवाज तेरी

और तेरी अदाएं सावन में

ये दिन, ये रात, ये कायनात

सब खिलते हैं तेरे आँगन में

जो ख्वाब छुपा है पलकों में

जो खयाल उभरता है मन में

वो तू ही तो है, जिसका जलवा

रोशन है मेरी चितवन में

तेरा ही रूप नजर आए

जब जब मैं देखूँ दर्पण में

कुदरत ने खुशियाँ चुनचुनकर

भर दी हैं मेरे दामन में

शनिवार, 23 मई 2009

बगिया

आसमान में उड़ना चाहा,
पंखों में कुछ तीर चुभे हैं
अधरों ने गाना तो चाहा,
पर मन में ही गीत दबे हैं

खिलखिलके हंसना भी चाहा,
मुस्कानों पर लगे हैं ताले,
काँटों की राहों पर चलकर
इन पैरों में पडे हैं छाले

आशाओं के वन्दनवार से
मनका द्वार सजाना चाहा,
अपने लहू से सींच के हमने
ये गुलजार सजाना चाहा

हर आशा को चोट लगी है,
और कलियों को जख्म मिले हैं
हाल न पूछो इस बगिया का,
फूल के बदले शूल खिले हैं

चाहा कुछ था, पाया कुछ है,
किस्मत ने कुछ यूँ लूटा है,
पता नहीं कब हाथ से अपने
खुशियों का दामन छूटा है

मन

यह चंचल, अचपल, नटखट मन
नहीं माने, उडे, छू ले नील गगन
जब गंध लुटाती कली खिले,
चले झूम झूम जैसे मस्त पवन
कभी काली घटा जब घिर आए,
मनमोर नाचे आँगन आँगन
बूंदों के संग संग थिरक उठे,
सावन तो है इसका मनभावन
ऋतू आए बसंत, पलाश खिले,
कोयल संग गाये, होके मगन
संध्या की लाली जब छाये,
मन हो उदास, जल भरे नयन
तारों से सजी जो रात आए,
जादू सा जगाये चन्द्रकिरन
सपनों की नगरी में घूमे,
लिए संग कोई प्यारी सी लगन
फिर हरसिंगार की सुबह जगे,
पुलकित हो जाए वन-उपवन
फिर चंचल, अचपल, नटखट मन
नहीं माने, उडे, छू ले नील गगन!

शनिवार, 2 मई 2009

पयाम

इस दिल में कोई फूल खिला है अभी अभी
मुझको तेरा पयाम मिला है अभी अभी

किस रोशनी से जगमगा रहा है घर मेरा
उम्मीद का चराग जला है अभी अभी

खिलती हुई कली ने मुझे दी है ये ख़बर
दिलका हसीन राज खुला है अभी अभी

राहों में मेरी फूल बिछाए बहार ने
यूँ कोई मेरे साथ चला है अभी अभी

आया है चाँद आसमां से दिल में उतरके
आँखों में तेरा प्यार पला है अभी अभी

ऐ रूह, दिल बिछाके रख सनम की राह में
एक कारवां खुशी का चला है अभी अभी

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

गुजरे ज़माने

बारहा गुजरे ज़माने ढूँढते हैं
तुमसे मिलने के बहाने ढूँढते हैं

क्या पता किस मोडपर मिल जाएगा वो?
गुमशुदा दिल को दिवाने ढूँढते हें

ये तो बस दीवानगी की इंतहा है
गूंगी गलियों में तराने ढूँढते हैं

छोड़कर अपना चमन, अपनी बहारें
वो बयाबाँ में ठिकाने ढूँढते हें

शबनमी यादों से भीगी चाँदनी में
हम वो बीते दिन सुहाने ढूँढते हैं

तिनके तिनके से जहाँ छलके वफाएं
"रूह" हम वो आशियाने ढूँढते हैं

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

दुआ

देना हो तो ऐसा दे या रब,
हर ग़म की दवा हम बन जाएँ
जो कबूल हो हर एक हालत में,
बस ऐसी दुआ हम बन जाएँ

चाहे मन्दिर हो चाहे मस्जिद हो,
गिरजाघर हो चाहे गुरुद्वारा
जो गूंजे सबके आँगन में,
वो तेरी सदा हम बन जाएँ

हम फूल की खुशबू बन जाएँ,
और बिखर जाएँ हर गुलशन में,
हर जख्म को जो छूकर भर दे,
वो बादेसबा हम बन जाएँ

हमसे न कभी कोई गलती हो,
नफ़रत से हमेशा दूर रहें
जोडे जो दिलों को आपस में,
वो खुदा की अदा हम बन जाएँ

पत्थर न बने हम रस्ते का,
जो चोट किसी को पहुंचाए,
रिश्तों में दरारें न हो जिसमें,
उस घर का पता हम बन जाएँ

ऐ रूह, दुआ हो कबूल तेरी,
दरबार में उसकी इंशा अल्लाह
न कभी भी खता हम बन जाएँ,
न किसीकी सजा हम बन जाएँ

रविवार, 5 अप्रैल 2009

ग़ज़ल

कैसे खिलेगा फूल वो टूटा जो शाख से?

मिल जाएगा वो खाक में, आया है खाक से

रंगीन हैं फिजाएं तुम्हारे विसाल से,

ग़मगीन हैं फिजाएं खयाल-ऐ-फिराक से

मर्जी तेरी है, तू कभी आए के न आए

आवाज दी है हमने तो उठउठके खाक से

हैरत से यूँ न देख हमें गैर नजर से

महफ़िल में तेरी आए हैं हम इत्तेफाक से

नादान है ये, जान भी दे देगा इश्क में,

इस दिल को कभी यूँ न सताना मजाक से

ऐ रूह, उसकी बेरुखी ने जान से मारा,

हम तो गए थे मिलने बड़े इश्तियाक से

सांझ

पवन के झोकों के संग संग गगन का लहराता आँचल
नदी की चंचल धारा में खनकती बूंदों की पायल
सलोनी सांझ के मुखड़े पे दमकती सूरज की लाली
रचाकर आयी आंखों में रात का हल्का सा काजल
दुल्हन के माथे पे सोहे चाँद का मद्धम सा टीका
निखारे रूप सुहागन का सुनहरे रंगभरे बादल
अगन है मन में मीठीसी, लगन प्रीतम से मिलने की
सजीली पलकों की झालर झुकी है लज्जा से बोझल
झील के उजले दर्पन में निहारे रूप अनोखा सा,
चली धीरे धीरे गोरी, लजाये, खाए सौ सौ बल
इसी सुरमई उजाले में डूब जाए मन की नैया
इसी चम्पई अंधेरे में मेरा भी जीवन जाए ढल