शनिवार, 23 मई 2009

बगिया

आसमान में उड़ना चाहा,
पंखों में कुछ तीर चुभे हैं
अधरों ने गाना तो चाहा,
पर मन में ही गीत दबे हैं

खिलखिलके हंसना भी चाहा,
मुस्कानों पर लगे हैं ताले,
काँटों की राहों पर चलकर
इन पैरों में पडे हैं छाले

आशाओं के वन्दनवार से
मनका द्वार सजाना चाहा,
अपने लहू से सींच के हमने
ये गुलजार सजाना चाहा

हर आशा को चोट लगी है,
और कलियों को जख्म मिले हैं
हाल न पूछो इस बगिया का,
फूल के बदले शूल खिले हैं

चाहा कुछ था, पाया कुछ है,
किस्मत ने कुछ यूँ लूटा है,
पता नहीं कब हाथ से अपने
खुशियों का दामन छूटा है

1 टिप्पणी: