मंगलवार, 2 मार्च 2010

शायद

वो इन्सां नहीं है, फ़रिश्ता है  शायद
मुझे जो मिला, वो मसीहा है शायद

अंधेरे मेरे फिर चमकने लगे हैं,
कोई ख्वाब आँखों से गुजरा है शायद

अभी चाँद को मैंने रोते सुना था,
तुम्हारी तरह वो भी तनहा है शायद

उसे सोचते हैं तो लगता है ये क्यूँ?
जिसे ढूँढते थे, वो ऐसा है शायद

तेरे गेसुओं की घटाओं को छूकर
ये सावन का पैमाना छलका है शायद

वो कहते रहें और सुनते रहें हम,
ये रिश्ता निभाने का नुस्ख़ा है शायद

जो पांवों के छालों में चुभता है अक्सर,
मेरे ख्वाब का कोई टुकड़ा है शायद

उसे 'रूह' का दर्द कैसे दिखेगा?
कि आँखें हैं फिर भी वो अंधा है शायद

3 टिप्‍पणियां:

  1. वो कहते रहें और सुनते रहें हम,
    ये रिश्ता निभाने का नुस्ख़ा है शायद

    Superb.
    KHup khup aavdla ha sher.

    mastach lihila aahe

    Salil Chaudhary
    http://www.netbhet.com

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  2. बहोत खूब !!! अप्रतिम गज़ल. अभिनंदन. सारेच शेर सुंदर आहेत पण त्यातही
    अंधेरे मेरे फिर चमकने लगे हैं,
    कोई ख्वाब आँखों से गुजरा है शायद

    हा सर्वाधिक आवडला.
    तेरे गेसुओं की घटाओं को छूकर
    ये सावन का पैमाना छलका है शायद

    मी पहिली ओळ 'तेरे गेसुओं की घटाओं से होकर ' अशी वाचली. अर्थात तुम्ही लिहिलेले सुंदर आहेच.

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  3. जो पांवों के छालों में चुभता है अक्सर,
    मेरे ख्वाब का कोई टुकड़ा है शायद

    वा! अच्छी सोच है...
    क्या बात है!!!

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