शनिवार, 26 मार्च 2011

खै़रात की सांसें


बिन तेरे जी तो रहे हैं, मगर खुशी तो नहीं
जैसे खै़रात की सांसें हों, ज़िंदगी तो नहीं

दिलने चाहा था संवारेंगे उसे ख़्वाबों से,
ज़िंदगी दूर से गुजरी, हमें मिली तो नहीं

अजनबी शहर में भूले से उसका ज़िक्र हुआ,
लोग पूछा किए, "दीवाना वो यही तो नहीं?"

एक धुंधली सी है तसवीर दिल के शीशे में,
ग़ौर से देखिये, ये चीज आपकी तो नहीं?

सुबह आती है, चली जाती है, रात आती है
दिन गुजर जाते हैं, यूं ऊम्र गुजरती तो नहीं!

क्यों है सीने में ये खामोशी? उनके कदमोंपर
कोई शय, दिल जिसे कहते हैं, वो गिरी तो नहीं?

"रूह" बेचैन है, वो मिलके क्यों नहीं मिलता?
आशिकी संगदिल सनम की दिल्लगी तो नहीं?

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